ईश्वर की भक्ति
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सामाजिक जीवन में रहते हुए भी ईश्वर का सुमिरन किया जा सकता है। भजन के लिए जरुरी नहीं की सब नाते रिश्ते तोड़ कर व्यक्ति किसी पहाड़ पर जाकर ही मालिक को याद करें। ईश्वर को किसी स्थान विशेष में ढूढ़ने की भी आवश्यकता नहीं है, वो तो घट घट में निवास करता है। स्वंय के अंदर ना झाँक कर उसे बाहर ढूंढने पर कबीर साहब की वाणी है -
ना तीरथ में ना मूरत में ना एकांत निवास में
ना मंदिर में ना मस्जिद में ना काबे कैलाश में
ना मैं जप में ना मैं तप में ना मैं व्रत उपास में
ना मैं क्रिया क्रम में रहता ना ही योग संन्यास में
नहीं प्राण में नहीं पिंड में ना ब्रह्माण्ड आकाश में
ना मैं त्रिकुटी भवर में सब स्वांसो के स्वास में
खोजी होए तुरत मिल जाऊं एक पल की ही तलाश में
*कहे कबीर सुनो भाई साधो मैं तो हूँ विशवास में*
सद्कार्य करते हुए जितना भी वक़्त मिले ईश्वर की भक्ति ही काफी है। वस्तुतः सद्कार्यों में जीवन बिताते हुए ईश्वर का स्मरण ही काफी है। पुरे दिन मंदिर में बैठकर पूजा पाठ करने से कोई विशेष लाभ नहीं होगा यदि मन में लोगों के प्रति कल्याण की भावना ही ना हो। असहाय की मदद करे, निर्धन की सहायता करें, बुजुर्गों का ख़याल रखें तो ईश्वर की भक्ति स्वतः ही हो जाती है। मानवता की सेवा ही सच्ची भक्ति है। मंदिर में दान पुण्य करने का अपना महत्त्व है लेकिन यह कहाँ तक उचित है की कोई व्यक्ति समर्थ होने पर सिर्फ मंदिरों में चढ़ावा दे और उसके आस पास बढ़ते हाथों को नजर अंदाज करता रहे। दोनों का अपने स्थान पर महत्त्व है।
लोग तीर्थ करते हैं घंटों जाप करते हैं, मंदिर जाते हैं ये उचित भी है लेकिन इसकी महत्ता उस समय समाप्त हो जाती है जब वह व्यक्तिगत आचरण में सच्ची भक्ति को ना उतारे। सच्ची भक्ति क्या है ? सच्ची भक्ति है बाह्य आचरण और आडम्बर को छोड़ कर सच्चे मन से प्रभु की भक्ति करना, यही प्रभु की कृपा पाने का एकमात्र साधन है। ऐसा तो है नहीं की जिस की हम भक्ति कर रहे हैं उस मालिक को हमारे बारे में जानकारी हो ही ना। वो तो कण कण में निवास करता है, जो समस्त श्रष्टि का स्वामी है उससे हम क्या छुपा सकते हैं।
हमारी भक्ति तभी स्वीकार नहीं होती है जब हम बाहर से कुछ और अंदर से कुछ और हों। यदि कोई व्यक्ति खूब दान पुण्य करता रहे, सुबह शाम प्रभु की पूजा करता रहे और स्वंय के व्यक्तिगत जीवन में किसी का हक़ मार कर खाये, अपने रिश्तेदारों से ईर्ष्या रखकर उन्हें नीचे दिखाने के लिए युक्तियाँ बनाता रहे तो आप स्वंय बताएं की क्या उसके कामों की खबर उस परमपिता परमेश्वर को नहीं है। उसे सब पता है इसलिए उसके द्वारा रोज की जाने वाली पूजा का महत्त्व और प्रभाव समाप्त हो जाता है।
*भगति भजन हरि नांव है, दूजा दुक्ख अपार।*
*मनसा बाचा क्रमनां, कबीर सुमिरण सार ॥*
कबीर ने भी नाम सुमिरन को ही वास्तविक भक्ति माना है। हरी का नाम सुमिरन करना ही भक्ति है शेष अन्य माध्यमों का अनुसरण करने पर दुःख की प्राप्ति ही होनी वाली है, हरी प्राप्ति नहीं। हरी नाम सुमिरन भी मन से, वचन से और कर्म से होना चाहिए। सिर्फ लोक दिखावे की भक्ति से कुछ प्राप्त होने वाला नहीं है। हमारे कर्म भी ऐसे होने चाहिए जिससे ऐसा लगे की हमारा ईश्वर के प्रति समर्पण है। ईश्वर का सुमिरन करने वाले व्यक्ति में स्वतः ही मृदुता आ जाती है और वो मानवतावादी हो जाता है उसके लिए सभी की हृदय में स्थान होता है। सांकेतिक रूप से सिर्फ मूर्तिपूजा का कोई लाभ नहीं होता है इस पर कबीर साहब की वाणी है की सौ वर्षहि भक्ति करि, एक दिन पूजै आन सो अपराधी आत्मा, पैर चौरासी खान। निरंतर राम नाम का जाप ही फलदायी है।
*कबीर कहता जात हूँ, सुणता है सब कोई ।*
*राम करें भल होइगा, नहिंतर भला न होई ॥*
मुक्ति प्राप्ति के लिए भक्ति करनी आवश्यक है नहीं तो चौरासी के फेर में व्यक्ति घूमता रहता है। भक्ति मन से करने के बारे में कबीर की बानी है की हाथ से माला फेरने से कोई लाभ नहीं होने वाला मन से भक्ति करनी होगी इस पर कहा है माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर, कर का मन का डार दे, मन का मनका फेर।
भक्ति का उद्देश्य मन में साफ़ होना चाहिए। भक्ति से सीधे सीधे कुछ भौतिक लाभ हो जायेगा ऐसा नहीं है। कहीं गड़ा हुआ धन मिल जायेगा या फिर मान सामान मिल जाएगा ऐसा भी नहीं है। कुछ लोग दूसरों के देखा देखी भक्ति करते हैं पर जब उनके स्वार्थ पुरे नहीं होते तो वो भक्ति में ही कमियां निकलना शुरू कर देते हैं।
*मान बड़ाई देखि कर, भक्ति करै संसार।*
*जब देखैं कछु हीनता, अवगुन धरै गंवार।*
वर्तमान सन्दर्भ में हम देखते हैं की कुछ लोग भक्ति करने का ढोंग करते हैं। वे स्वंय को दूसरों से श्रेष्ठ दिखाने के चक्कर में बाह्याचार करते हैं जबकि उनके अंदर क्रोध, बदले की भावना, प्रतिस्पर्धा और ईर्ष्या कूट कूट कर भरी रहती है। ऐसे लोग लोगों में अखबारबाजी करने में माहिर होते हैं। मैंने इतने दिन का व्रत कर लिया है, में हर वर्ष तीर्थ करने जाता हूँ..... आदि। लेकिन इससे वो लोगों में श्रेष्ठ होने का ढोंक मात्र कर रहे होते हैं। उनके पल्ले और कुछ नहीं होता है। गुरुओं का भी यही हाल है। टीवी पर धर्म के प्रवचन देने वालों की बाढ़ सी आयी हुयी है। ज्यादातर गुरु लोग स्पॉंशरशिप हो गए हैं। बढ़िया चमकते वस्त्र, रुद्राक्ष की माला, गेरुआ वस्त्र धारण करके चौकड़ी लगा कर बैठ जाते हैं। आये दिन ऐसे ढोंगी बाबा पुलिस के हत्थे चढ़ते हैं।
भक्ति वही पर समाप्त हो जाती है जब किसी के अंदर एक प्रश्न जन्म ले लेता है "भक्ति से क्या लाभ होता है". जहाँ बात लाभ के गणित पर टिक जाती है वहां कैसी भक्ति। कुछ प्राप्ति के लिए अपने मालिक की भक्ति बड़ा ही अटपटा सा प्रश्न है। बहरहाल अर्जुन ने श्री कृष्ण से एक बार प्रश्न पूछा की जब काल सभी को एक रोज खा जाना है। सभी को मरना है चाहे वो भक्ति करे या नहीं तो फिर प्रभु का सुमिरण और भक्ति का क्या लाभ ? इस पर श्री कृष्ण का सुन्दर जवाब था की जैसे एक बिल्ली अपने दातों से अपने शिकार को मार डालती है और वो ही बिल्ली अपने बच्चों को दातों से बड़ी कोमलता से उठाती है, वैसे ही काल भक्त जन को ले जरूर जाता है लेकिन उसका स्थान अन्य से इतर होता है। मालिक के सामने उसे शर्माने की आवश्यकता नहीं होती और मालिक उसे देख कर हर्षित होते हैं। जिन्होंने पुरे जीवन में अपनी चादर (मानव देह) को संभाल कर नहीं रखा और उसके दाग ही दाग लगा डाले हैं वो मालिक से कैसे नजर मिलाएंगे, विचारणीय है।
मैली चादर ओढ़ के कैसे, द्वार तुम्हारे आऊँ।
मैली चादर ओढ़ के कैसे, द्वार तुम्हारे आऊँ।
हे पावन परमेश्वर मेरे, मन ही मन शरमाऊँ॥
मैली चादर ओढ़ के कैसे, द्वार तुम्हारे आऊँ।
मैली चादर ओढ़ के कैसे तूमने मुझको जग में भेजा,
निर्मल देकर काया आकर के संसार में मैंने,
इसको दाग लगाया जनम् जनम् की मैली चादर
कैसे दाग छुड़ाऊं मैली चादर ओढ़ के कैसे....
*मैली चादर ओढ़ के कैसे, द्वार तुम्हारे आऊँ।*
*जय श्री कृष्ण...🍃🌷*
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